कश्मीरी पंडितों के एनजीओ की क्यूरेटिव याचिका सुप्रीम कोर्ट ने ठुकरायी

नयी दिल्ली (एजेंसी/वार्ता): उच्चतम न्यायालय ने ने कश्मीरी एनजीओ की ओर से दायर उस क्यूरेटिव याचिका को ठुकरा दिया जिसमें 1989-90 में घाटी में आतंकवाद के चरम दौर के समय मारे गये कश्मीरी पंडितों की हत्या की जांच की मांग की गयी थी।

मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड , न्यायमूर्ति संजय किशन कॉल और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर की पीठ ने यह कहते हुए याचिका ठुकरा दी कि “ हम इस याचिका और इससे जुड़े दस्तावेजों को देख चुके हैं और हमारी राय है कि निहित मानकों में कोई मामला नहीं बनता है।

उच्चतम न्यायालय में एनजीओ की ओर से पहले भी एक याचिका दायर की गयी थी और 2017 में इसी न्यायालय में इसे खारिज कर दिया था। वर्ष 2017 में उच्चतम न्यायालय ने ही कहते हुए याचिका खारिज कर दी थी कि घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन के 27 साल गुजर जाने के बाद इस मामले में किसी तरह से जांच करना या सुबूत एकत्र करना बहुत मश्किल है। न्यायालय ने 25 अक्टूबर 2017 को पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी थी।

क्यूरेटिव याचिका में पक्षकारों को सुनवाई का अवसर प्रदान करके मामले को नए सिरे से तय करने का निर्देश देने की मांग की गयी थी। याचिका में 1984 के सिख विरोधी दंगे मामले को उदाहरण के तौर पर पेश किया गया था जब न्यायालय ने 33 साल से अधिक का समय बीत जाने के बाद मामले का संज्ञान लिया था। दिल्ली उच्च न्यायालय ने 1986 के सिख विरोधी दंगों को लेकर आये एक फैसले से जुड़े पांच मामलों को दोबारा खुलवा दिया था।

क्यूरेटिव याचिका में यह भी रेखांकित किया गया था कि उच्चतम न्यायालय के आदेश पर सीबीआई की अपील और रायबरेली की एक अदालत में चल रहे आपराधिक मामले को लखनऊ की विशेष अदालत में स्थानांतरित किया गया था। इसी के साथ बाबरी मस्जिद ढहाये जाने से जुडे मामले और 1992 में आपराधिक षडयंत्र रचने के आरोप लगाये जाने की भी इजाजत दी गयी थी।

याचिका में कहा गया “ कश्मीरी पंडितों के संहार को लेकर पहले दायर याचिका को खारिज करते हुए दिये गये फैसले और निर्देश इस आधार पर पुनर्विचार के लिए तर्कसंगत हैं क्योंकि आदेश उन निराधार अनुमानों पर दिया गया कि इस घटना को लेकर कोई सबूत उपलब्ध होने की संभावना नहीं है। इस आदेश में इस तथ्य को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया कि वर्ष 1996 से कुछ प्राथमिकियों में मुकदमे भी चल रहे हैं।”

याचिका में यह भी कहा गया कि उच्चतम न्यायालय इस तथ्य को भी मानने में पूरी तरह से नाकामयाब रहा कि 700 से अधिक कश्मीरी पंडित 1989 से 1998 तक मारे गये और केवल 200 से अधिक मामलों में एफआईआर दर्ज की गयी, लेकिन कोई भी याचिका आरोपपत्र दाखिल होने या दोषसिद्ध होने तक पहुंच ही नहीं पायी।

-एजेंसी/वार्ता

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