उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि राज्यपाल बिना कार्रवाई के अनिश्चितकाल के लिए विधेयकों को लंबित नहीं रख सकते।
न्यायालय ने साथ ही कहा कि राज्य के गैर निर्वाचित प्रमुख के तौर पर राज्यपाल संवैधानिक शक्तियों से संपन्न होते हैं लेकिन वह उनका इस्तेमाल राज्य विधानमंडलों द्वारा कानून बनाने की सामान्य प्रक्रिया को विफल करने के लिए नहीं कर सकते।
प्रधान न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि इस प्रकार की कार्रवाई संवैधानिक लोकतंत्र के उन बुनियादी सिद्धांतों के विपरीत होगी जो शासन के संसदीय स्वरूप पर आधारित हैं।
पीठ ने पंजाब सरकार की एक याचिका पर 10 नवंबर के अपने आदेश में कहा, ‘‘राज्य के गैर निर्वाचित प्रमुख के तौर पर राज्यपाल संवैधानिक शक्तियों से संपन्न होते हैं। लेकिन इन शक्तियों का इस्तेमाल राज्य विधानमंडलों द्वारा कानून बनाने की सामान्य प्रक्रिया को विफल करने के लिए नहीं किया जा सकता।’’
पीठ ने अपने आदेश में कहा कि अगर राज्यपाल किसी विधेयक को मंजूरी देने से रोकने का निर्णय लेते हैं तो उन्हें विधेयक को पुनर्विचार के लिए विधानमंडल के पास वापस भेजना होता है।
पीठ ने अपने आदेश में कहा,‘‘ यदि राज्यपाल अनुच्छेद 200 के मूल भाग के तहत मंजूरी रोकने का फैसला करते हैं तो कार्रवाई का तार्किक तरीका विधेयक को पुनर्विचार के लिए राज्य विधायिका को भेजने के लिए बताए गए उपाय पर आगे बढ़ना है।’’
इसमें कहा गया, ‘‘दूसरे शब्दों में अनुच्छेद 200 के मूल भाग के तहत मंजूरी को रोकने की शक्ति को उस अनुवर्ती कार्रवाई के साथ देखा जाना चहिए कि आगे क्या किया जाना है।’’
शीर्ष अदालत ने कहा कि संघवाद और लोकतंत्र आधारभूत ढांचे के हिस्से हैं और इन्हें अलग नहीं किया जा सकता।
शीर्ष अदालत ने पंजाब के राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित को 19 और 20 जून को ‘‘संवैधनिक रूप से वैध’’ सत्र में विधानमंडल की ओर से पारित विधेयकों पर निर्णय लेने के निर्देश दिए। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल की शक्तियों का इस्तेमाल ‘‘ कानून बनाने की सामान्य प्रक्रिया को रोकने में नहीं किया जा सकता।’’
उच्चतम न्यायालय का यह फैसला बृहस्पतिवार रात को अपलोड किया गया। न्यायालय ने पंजाब की आम आदमी पार्टी की सरकार की याचिका पर फैसला सुनाया जिसमें आरोप लगाया गया था कि राज्यपाल उन चार विधेयकों को मंजूरी नहीं दे रहे हैं जिन्हें विधानसभा ने पारित किया है।
पंजाब सरकार ने यह भी अनुरोध किया कि आदेश में कहा जाए कि 19 और 20 जून को आयोजित विधानसभा का सत्र ‘‘वैध था और सदन में हुआ कामकाज भी वैध है।’’
शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा कि विधानसभा का सत्र वैध था और विधानसभा अध्यक्ष के निर्णय लेने के बाद राज्यपाल का रुख उचित नहीं है।
पीठ ने कहा, ‘‘हमारा मानना है कि 19 जून, 2023, 20 जून, 2023 और 20 अक्टूबर, 2023 को आयोजित विधानसभा के सत्र की वैधता पर संदेह करने का कोई उचित संवैधानिक आधार नहीं है।’’
पीठ की ओर से फैसला प्रधान न्यायाधीश ने लिखा। फैसले में कहा गया, ‘‘विधानसभा के सत्र पर किसी तरह का संदेह पैदा करने का कोई भी प्रयास लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरों से परिपूर्ण होगा। विधानसभा अध्यक्ष जिसे सदन के विशेषाधिकारों का संरक्षक और सदन का प्रतिनिधित्व करने वाले प्राधिकारी के रूप में संवैधानिक मान्यता दी गई है वह सदन को अनिश्चित काल के लिए स्थगित करने में अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर सही कार्रवाई कर रहे थे।’’
फैसले में कहा गया, ‘‘संसदीय स्वरूप वाले लोकतंत्र में वास्तविक शक्तियां जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास होती हैं। राज्यों और केंद्र दोनों सरकार में राज्य विधानमंडल के सदस्य होते हैं…।’’
फैसले में कहा गया, ‘‘मंत्रिमंडलीय सरकार में सरकार के सदस्य विधायिका के प्रति जवाबदेह होते हैं और उनकी जांच के अधीन होते हैं। राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त व्यक्ति के तौर पर राज्यपाल राज्य का नाममात्र प्रमुख होता है।’’
पंजाब के राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित ने मुख्यमंत्री भगवंत मान को पत्र लिखने के कुछ दिनों बाद उन्हें भेजे गए तीन में से दो विधेयकों को एक नंवबर को अपनी मंजूरी दे दी थी। इस पत्र में उन्होंने कहा था कि विधेयकों को विधानसभा में पेश करने की अनुमति देने से पहले वह सभी प्रस्तावित कानूनों की गुण दोष के आधार पर जांच करेंगे।
विधानसभा में धन विधेयक पेश करने के लिए राज्यपाल की मंजूरी की जरूरत होती है।
चार अन्य विधेयक: सिख गुरुद्वारा (संशोधन) विधेयक, 2023, पंजाब विश्वविद्यालय कानून (संशोधन) विधेयक, 2023, पंजाब पुलिस (संशोधन) विधेयक, 2023 और पंजाब संबद्ध कॉलेज (सेवा की सुरक्षा) संशोधन विधेयक, 2023 को राज्यपाल की मंजूरी नहीं मिली है। ये विधेयक पंजाब विधानसभा के 19-20 जून के सत्र के दौरान पारित किए गए थे।
– एजेंसी